Wednesday 19 September 2012

पदोन्नति में आरक्षण का सच ?

नौकरियों में पदोन्नति में आरक्षण से संबंधित विधेयक को संसद में पेश किया जा चुका है। इसके साथ ही इसके पक्ष और विपक्ष में सुर-आलाप भी शुरू हो चुके हैं। पदोन्नति में आरक्षण का मसला कितना सही और कितना गलत है, इसके राजनीतिक निहितार्थ और स्वार्थ कितने हैं, ये जानने से पहले हमें भारतीय लोकतंत्र के संवैधानिक ढांचे में आरक्षण के सफर पर भी निगाह दौड़ा लेनी चाहिए। ये देखना चाहिए कि जब ये आया उस समय स्थितियां क्या थीं, क्या कहा गया था और फिर इसे किस तरह बरकरार रखते हुए अब इसे सियासी फायदे का हथियार बना लिया गया है।
२६ जनवरी, १९५० को हमारे देश में संविधान लागू हुआ। इससे पहले इसके एक एक बिंदू पर गहन विचार विमर्श हुआ। संविधान सभा के सामने जब आरक्षण के मसले को पेश किया गया तो इसको लेकर जबरदस्त बहस छिड़ी। आप हैरान हो सकते हैं कि इसका सबसे ज्यादा विरोध किसकी ओर से हुआ था-खुद संविधान समिति के अध्यक्ष डा. भीमराव अंबेडकर ने इसका सबसे ज्यादा विरोध किया था। उनका कहना था कि ऐसा करके हम अनुसूचित जाति और जनजाति के लोगों को और अपंग बना देंगे, एक बार अगर हमने उन्हें आरक्षण की बैशाखी दे दी तो वो कभी अपने पैरों पर खड़ा होना नहीं सीख पाएंगे। खैर लंबी बहस और चर्चा के बाद आरक्षण को कानून में शामिल कर लिया गया। लेकिन तब इसे महज दस सालों यानि १९५० से १९६० तक के लिए लाया गया। सोच ये थी कि इन दस वर्षों में जब अनुसूचित जाति और जनजाति वर्ग के लोग प्रशासनिक सेवाओं और संघीय नौकरियों में आयेंगे तो उनकी सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक हैसियत बढेगी, जिससे वो समाज की मुख्य धारा में शामिल हो जाएंगे-इसके बाद आरक्षण की कोई जरूरत नहीं रहेगी। संविधान में तब अनुसूचित जाति को १५ फीसदी और अनुसूचित जनजाति को ७.५ फीसदी आरक्षण की व्यवस्था की गई। 
लेकिन इसके बाद राजनीतिक हितों के चलते हर दस साल पर आरक्षण को आगे बढ़ाया जाता रहा। हालांकि इस विषय पर दायर तमाम याचिकाओं के जवाब में सुप्रीम कोर्ट ने भी माना है कि संविधान के अनुच्छेद १४-१८ में जिस समानता के मौलिक अधिकार की बात कही गई है, आरक्षण उस दिशा में प्रभावी भूमिका निभा रहा है। अदालत के अनुसार जो लोग इसका विरोध कर रहे हैं वो सही नहीं है। आरक्षण को सकारात्मक भेदभाव के रूप में लिया जाना चाहिए। केवल भारत ही नहीं बल्कि दुनिया के तमाम मुल्कों में आरक्षण अलग अलग तरीके से दिया जा रहा है, एसे देशों में अमेरिका और ब्रिटेन भी शामिल है। 
इसमें कोई शक नहीं कि कमजोर वर्ग को आरक्षण  मिलना चाहिए। लेकिन ये भी सही है कि आरक्षित श्रेणी में आरक्षण के लाभ से इसी के  अंदर एक भद्रलोक पैदा हो गया है। इसका लाभ कुछ परिवारों को ही बार बार मिल रहा है, कहा जा सकता है कि इसके लाभ का दायरा आरक्षित श्रेणी में भी सीमित रह गया है। वाकई जिन लोगों को इसका लाभ मिलना चाहिए था, जो दबे कुचले हैं, गांवों और दूरदराज में रहते हैं वो अब भी इससे वंचित हैं, वो पिछड़े ही रह गये हैं। लिहाजा जिस आरक्षण को महज दस सालों तक रखकर खत्म कर देना था वो ६० सालों से चला आ रहा है। कहा जा सकता है कि आरक्षण का उद्देश्य प्राप्त नहीं हो सका है, इसकी वजह लगातार बढ़ती हुई जनसंख्या भी हो सकती है, लेकिन अब आरक्षण की व्यवस्था में बदलाव की जरूरत है। इसका लाभ वहां तक पहुंचे, जिनतक पहुंचने के लिए इसे बनाया गया था। एक व्यक्ति या परिवार को इसका लाभ हर बार ही नहीं मिलना चाहिए। आरक्षण को व्युत्क्रम उत्पीडन नहीं बनने देना चाहिए। यानि अगर कोई अगर हजारों साल तक शोषित रहा है तो जरूरी नहीं कि वो अब हजारों साल तक दूसरों का शोषण करता रहे। समाज को वास्तव में समान बनाने का प्रयास करना है न कि एक ही व्यक्ति या परिवार को एक ही लाभ बार बार देने की कोशिश करना है और न समाज में पुरानी विसंगतियां और वैमनस्य के नये बीज को फिर से बोने देना है। 
थोड़ा पीछे लौटते हैं कि पिछड़ों को आरक्षण देने के लिए नेहरू के शासनकाल में १९५३-५५ में काका कालेलकर आयोग का गठन हुआ था, जिसकी रिपोर्ट को खारिज कर दिया गया था। इसके बाद १९७९ में मोरारजी भाई देसाई ने विंदेश्वरी प्रसाद मंडल आयोग का गठन किया। लेकिन इस आयोग ने भी सुनियोजित तरीके से सामाजिक और आर्थिक सर्वेक्षण नहीं किया और जनसंख्या के पुराने आंकड़ों पर रिपोर्ट बनाई। जब इंदिरा गांधी केंद्र सरकार में लौटीं तो उन्होंने इसे सदन के पटल पर रखा  लेकिन इसे नामंजूर कर दिया गया। १९८९ में वी पी सिंह की सरकार बनी तो उसने इसे लागू कर दिया। मामला सुप्रीम कोर्ट गया और तब १९९२ में कोर्ट ने फैसला दिया कि २२.५ फीसदी आरक्षण का जारी फैसला तो ठीक है। लेकिन इसके अलावा आरक्षण के जो प्रावधान किये गये हैं वो संविधान सम्मत, तर्क सम्मत और प्रभावी होने चाहिए। उसने ये भी कहा कि बेशक ओबीसी की पहचान होनी चाहिए लेकिन जाति इसकी एकमात्र आधार नहीं होनी चाहिए। ओबीसी की पहचान के लिए उसने एक अलग आयोग के गठन की बात की।
लिहाजा पटना उच्च न्यायालय के अवकाश प्राप्त न्यायाधीश आर एन प्रसाद की अध्यक्षता में नया आयोग बना। जिसने अपनी रिपोर्ट में क्रीमीलेयर का सिद्धांत दिया। 
हालांकि हाल ही नौकरियों के तहत पदोन्नतियों में आरक्षण को लेकर सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश नागराज का फैसला (२००६) भी खासा अहम रहा, जिन्होंने व्यवस्था दी कि नौकरियों में प्रोन्नति में आरक्षण हो सकता है लेकिन उच्च पदों पर इसका आधार आनुपातिक होना चाहिए। इससे प्रशासनिक कार्यक्षमता प्रभावित नहीं होनी चाहिए।
अब वर्ष २०१४ के चुनावों को अपने फायदों और वोटबैंक भुनाने के चलते मौजूदा सरकार आनन फानन में इसे विधेयक के तौर पर सदन में लेकर आई है। इसके जरिए ये सरकार अपने भ्रष्टाचार और नाकामी को छिपाना चाहती है। और फिर समाज को बांटने और उसे आपस में लड़ाने का ही कुचक्र रचा जा रहा है।